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Showing posts from July, 2017

प्रत्यक्षा की कविताएँ

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माइग्रेन- 1 उसने मेरे माथे में एक सुरंग बिछा दी है   बंकरों के पीछे जवान मुस्तैद हैं हथगोले लिये बारूद की गंध , उड़ते परखचे , खून , मांस मज्जा   चीख , रोना बिलखना मर जाना   खेत हुये सब , पटा है युद्ध क्षेत्र , मरघट का सन्नाटा विश्व का सबसे खूँखार युद्ध मेरे माथे के भीतर लड़ा जा रहा है   माइग्रेन- 2 मेरी शिराओं में किसी ने बर्फ डाल दिया है एक जमी हुई शिला   आँख के भीतर   पुतलियों के रास्ते एक सुरंग   लाल , गर्म , चमकीला   बाहर अब भी कितनी धूप है   और जीवन कैसे   सँभावनाओं से भरा माइग्रेन- 3 कितना गर्म है सब दहकता लाल   एक कठफोड़वा है   कोई चीता भी   घात लगाये   चौकन्ना   एक पेड़ है   सख्त , खुरदुरा   उसके पत्ते सुर्ख लाल गिरते हैं एक एक एक जबतक पूरी धरती हो नहीं जाती   आरक्त   माइग्रेन- 4 जैसे साँप का फन जैसे पत्थर से कुचलता   उसका हाथ   जैसे भूत रेल   सीटी बजाती भागती हर रात

सरिता जेनामाणि की कविताएँ

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दरवाज़ा मैं दस्तक देती हूँ दरवाज़े पर और खुलता है दरवाज़ा लेकिन इस से पहले कि मैं भीतर प्रवेश करूँ दरवाज़ा प्रवेश कर जाता है मेरे भीतर और खुलते चले जाते हैं अनगिनत दरवाज़े मेरे भीतर मैं तय नहीं कर पाती कि मैं दहलीज़ों को पार कर रही हूँ या वे मुझे पार कर रही हैं ? चकराकर , मैं ढूंढती हूँ कोई छत लेकिन इस से पहले कि मैं उसे पाऊँ ख़िसक जाती है पांवों के नीचे से ज़मीन **** विएना के   कॉफीहॉउस शाम ढलते ही जी उठते हैं इस शहर के कॉफी हॉउस उदासीनता की खनखनाहट के साथ बढ़ती है धीरे - धीरे एकांत की भीड़ मेज़ों के चारों तरफ़ *****   उधर , उस तरफ़ निःस्तब्धता फैलाती है पंख मरुस्थल की तरह तड़के से उज्ज्वल होते आकाश तले और दमकते हैं पक्षाघातग्रस्त पिरामिड नभोनील और स्वर्णिम रंगों के मिश्रण से अभी बहत कुछ शेष है कहने को सभ्याताओं से परे  **** प्रवास जीवन - भर