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Showing posts from September, 2017

मंदाक्रांता सेन की कविताएँ

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रास्ता तुम्हारी आँखों के भीतर एक लंबा रास्ता ठिठका हुआ है इतने दिनों तक मैं उसे नहीं देख सकी आज जैसे ही तुमने नज़रें घुमाई मुझे दिखाई दे गया वह रास्ता। बीच-बीच में तकलीफ़ झेलते मोड़ रास्ते के दोनों ओर थे मैदान फ़सलों से भरे खेत वे भी जाने कब से ठिठके हुए थे यह सब तुम्हें ठीक से याद नहीं आँखों के भीतर एक रास्ता पड़ा हुआ था सुनसान और जनहीन। दूसरी ओर कई योजन तक फैला हुआ है कीचड़ वहाँ रास्ता भी व्यर्थ की आकांक्षा-जैसा मालूम होता है कँटीली झाड़ियाँ और नमक से भरी है रेत, कहीं पर भी ज़रा-सी भी छाया नहीं इन सबको पार कर जो आया है क्या तुम उसे पहचानते हो? वह अगर कभी भी राह न ढूँढ़ पाए तो क्या तुम उससे नहीं कहोगे कि तुम्हारी आँखों में एक रास्ता है जो उसका इंतज़ार कर रहा है? -------------------------------------------------- लज्जावस्त्र रास्ते से जा रही हूँ और मेरे वस्त्र खुलकर गिरते जा रहे हैं मैं नग्न हुई जा रही हूँ माँ! और आखि़र घुटनों के बल बैठ जाती हूँ दोनों हाथों से जकड़ लेती हूँ दोनों घुटनों को, छुपा लेती हूँ अपना चेहरा अपना पेट अपना सीना खुली पीठ पर अनगिन

नरेश शांडिल्य की कविताएँ

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पेड़ : कुछ दोहे पेड़ चिड़ी का घौंसला, साँसों का मधुगीत। हारे-हारे पाँव का, हरियाला संगीत।। छाया मन ऐसी बसी, ज्यों कोयल मन आम। मरुथल मन उद्यान ज्यों, दशरथ के मन राम।। पीपल फैला दूर तक, इक पनघट के पास। थका हुआ सूरज रुका, लगा बुझाने प्यास।। कटे हुए हर पेड़ से, चीख़ा एक कबीर। मूरख कल को आज की, आरी से मत चीर।। इक दिन जब मर जाएँगे, पेड़ लगा कर फाँस। लिए कटोरा घूमना, माँगा करना साँस।।   ----------------- आलोचक            उसने मेरे पसीने को पानी कहा मैं चुप रहा उसने मेरे आँसू को पानी कहा मैं चुप रहा उसने मेरे ख़ून को पानी कहा मैं चुप रहा लेकिन जब उसने अपनी लार को भी लावा कहा तो मैं चुप नहीं रहा अपनी कसी हुई मुट्ठियों और भिंचे हुए दाँतों के साथ मैं मुड़ा मुस्कुराया और चल दिया आगे अब मेरी कविता को उस आलोचक की कोई दरकार नहीं है ...     ----------------- ग़ज़ल ग़ज़ल है तू , तो गाना चाहता हूँ सरापा तुझको पाना चाहता हूँ तेरे पहलू में काटूँ उम्र सारी कोई ऐसा बहाना चाहता हूँ मेरे भीतर में फैली गूँज है तू तुझे सबको सुनाना चाहता हूँ मुसलसल चु